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Big breaking :-अब ध्वनि तरंग आधारित तकनीक से होगी डॉल्फिन की सटीक गिनती, वैज्ञानिकों ने विकसित की तकनीक

अब ध्वनि तरंग आधारित तकनीक से होगी डॉल्फिन की सटीक गिनती, वैज्ञानिकों ने विकसित की तकनीक

वन्य जीव संस्थान के वैज्ञानिकों ने डबल ऑब्जर्वर मार्क-रिकैप्चर तकनीक विकसित की है। दिखने में सभी एक जैसी, कभी पानी की सतह पर उछलकूद करती और फिर चंद सेकंड में ओझल हो जाने वाली डॉल्फिन की गिनती करना ऐसा है मानो रेत में सुई ढूंढना।

 

 

 

.लेकिन अब भारतीय वन्य जीव संस्थान के वैज्ञानिकाें की ओर से डॉल्फिन की सटीक गिनती के लिए विकसित की गई डबल ऑब्जर्वर आधारित मार्क-रिकैप्चर विधि से यह आसान होगा।ध्वनि तरंगों से डॉल्फिन की पहचान करने वाली इस विधि से बिजनौर से गंगा सागर तक करीब नौ हजार किमी दूरी में सफल सर्वेक्षण कर केंद्र सरकार को रिपोर्ट सौंपी गई है। भारतीय वन्य जीव संस्थान की वैज्ञानिक डाॅ. विष्णुप्रिया कोलीपकम एवं वैज्ञानिक कमर कुरैशी ने बताया कि सांस लेने के लिए डॉल्फिन एक से डेढ़ सेकंड के लिए प्रत्येक दो से तीन मिनट के अंतराल में सतह पर आती है। दिखने में एक जैसी डॉल्फिन की सटीक गिनती काफी चुनौतीपूर्ण काम है।

 

 

 

 

करीब चार-पांच साल की मेहनत से तकनीक विकसित की गई। जिसके आधार पर यूपी के बिजनौर से लेकर गंगा सागर तक गंगा और इसकी सहायक नदियों में करीब नौ हजार किलोमीटर क्षेत्र का सर्वे किया है। पहले चरण का सर्वे अक्तूबर 2021 से मार्च 2022 तक और दूसरे चरण का सर्वे अक्तूबर 2022 से मार्च 2023 के बीच पूरा किया गया।सर्वे को 70 शोधार्थियों के सहयोग से पूरा किया गया। रिपोर्ट में क्षेत्रवार डॉल्फिन की संख्या बताई गई है। जल्द ही केंद्र सरकार की ओर से रिपोर्ट के आंकड़े सार्वजनिक किए जाएंगे। प्रधानमंत्री ने अगस्त 2020 में प्रोजेक्ट डॉल्फिन की घोषणा की। जिसके तहत नदियों में हर तीन साल में डॉल्फिन की व्यापक निगरानी होगी। जबकि डॉल्फिन हाॅटस्पाॅट क्षेत्र में हर एक साल में निगरानी होनी है। ऐसे में विकसित तकनीक डॉल्फिन की सटीक निगरानी में मददगार साबित होगी।

इन सहायक नदियों में भी किया गया सर्वे

– बिजनौर से गंगा सागर तक सर्वे के दौरान सहायक नदियों गागरा, शारदा, राप्ती, गंडक, महानंदा, कोसी, रूपनारायण, बक्शी, ब्रह्मपुत्रा, चंबा, सुंदरवन आदि।

हर डॉल्फिन की अलग पहचान बताता है साउंड सिग्नेचर

विकसित की गई डबल ऑब्जर्वर आधारित मार्क-रिकैप्चर तकनीक में नाव में अलग-अलग जगहों से डॉल्फिन की निगरानी की जाती है। इसके साथ ही हाइड्रोफोन, जीपीएस, अंडर वाटर रिकार्डर आदि के जरिए डॉल्फिन का एंगल और उसका साउंड सिग्नेचर रिकार्ड किया जाता है। 70 किलो हर्ट्ज पर रिकार्ड होने वाली ध्वनि तरंगों में दूरी और एंगल के आकलन कर प्रत्येक डॉल्फिन की अलग पहचान निर्धारित की जाती है। कोई डॉल्फिन पानी में चलती हुई नाव से आगे न निकल जाए, इसके लिए नाव की गति आठ से दस किलोमीटर प्रति घंटा होती है।

इसलिए बेहद धीमी है डॉल्फिन की विकास दर

डॉल्फिन की विकास दर काफी धीमी है। इनका हर 2-3 साल में एक बच्चा पैदा होता है। जो उनकी बढ़ोतरी के जोखिम को बढ़ा रहा है। दिसंबर 1996 में किए गए एक सर्वे के मुताबिक हरिद्वार के भीमगोड़ा बैराज और बिजनौर के बीच गंगा नदी के 100 किलोमीटर के खंड में कोई भी डॉल्फिन दर्ज नहीं की गई, जबकि गंगा के उत्तरप्रदेश भाग में डॉल्फिन की कुल अनुमानित जनसंख्या मात्र 500 दर्ज की गई










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